दूर .. रेगिस्तान के ऊंचे टीले पर
आकाशोन्मुख
मुझे दिख जाती है
अक्सर
एक कविता
पानी का गीत गाते हुए !!
उसके गीतों में
ज़िक्र नहीं है कहीं भी
बादलों का ,
वह याद नहीं करती रह-रहकर
बारिशों को ,
भरी दोपहरी में भी
नहीं कोसा कभी उसने
धूप को ,
उसे नहीं होता भ्रम
नदियों का
मृग मरीचिका की तरह ,
उसने कभी दोषी नहीं ठहराया
पृथ्वी को
उसकी परिक्रमाओं के लिए ,
वह तो
भोली , अबोध बालिका सी
थामें है कसकर "प्रेम बीज"
मुट्ठी में ,
वह आलाप रही है
प्रेमाख्यान
कि प्रेम रहा तो
छाई रहेंगी हरियाली पृथ्वी पर !!
हांलांकि
प्रतीक्षाएं खत्म कहां होती हैं,,है न !!
नमिता गुप्ता "मनसी"
मेरठ, उत्तर प्रदेश