उन्होंने यह भी इशारा किया कि विपक्षी दलों का यह रवैया पिछले नौ वर्षों से चला आ रहा है। जाहिर है कि वे इन शब्दों में अपने ही कार्यकाल का उल्लेख कर रहे थे। एक मजबूत एवं सामर्थ्यवान विपक्ष की जरूरत बतलाकर मोदी ने सबको चकित भी कर दिया। प्रधानमंत्री के ये परामर्श ऊपरी तौर पर तो बेहद नेक नजर आते हैं और कोई भी यह नहीं कह सकता कि इस सीख को विरोधी नेताओं को नहीं अपनाना चाहिये। सवाल तो यह है कि क्या स्वयं मोदी इस कथित नकारात्मकता के भाव से ऊपर उठ चुके हैं?
क्या उनमें विरोधी दलों एवं उनके नेताओं के प्रति नफरत का भाव कूट-कूटकर नहीं भरा हुआ है? सकारात्मकता का काढ़ा पिलाने की कोशिश करने वाले मोदी अगर ईमानदारी से अपने इन विचारों और खुद के आचरण पर ही गौर फरमाएं तो पाएंगे कि उनकी कथनी और करनी में धरती-आकाश सा फासला है। फिर भी, क्या ही अच्छा होता कि इस सलाह पर अमल की शुरुआत अगर उन्हीं से होती।
जिन नौ वर्षों के दौरान के विपक्ष के रवैये से मोदी व्यथित नजर आये, उसे अगर उन्हीं के बरक्स देखें तो उनका यह वक्तव्य एक बड़े विरोधाभास से कतई कम नजर नहीं आता। अमूनन मीडिया से भागने वाले मोदी अब संसद का सत्र प्रारम्भ होने पर इस तरह से मीडिया के समक्ष संक्षिप्त से उद्बोधन के लिये नमूदार होने लगे हैं। कम से कम इसका स्वागत तो किया ही जा सकता है। और भी बेहतर होता अगर वे पिछले सभी प्रधानमंत्रियों की परम्परा का निर्वाह करते हुए सत्र की शुरुआत के वक्त प्रेस कांफेंस करते।
पत्रकारों से सवाल आमंत्रित करते और उनके जवाब देते। अपने दो कार्यकालों के दौरान यह शायद चौथा या पांचवा मौका रहा होगा जब वे मीडिया के सामने आये। एक ओर तो वे पत्रकारों से बात ही नहीं करते, तो वहीं दूसरी ओर संसद में उनकी उपस्थिति बहुत कम होती है। संसदीय परम्परा के ही अनुसरण में सारे पूर्व प्रधानमंत्री पूरे समय संसद के दोनों सदनों में हाजिर रहा करते थे।
मोदी संसद के सत्रों के दौरान सदन के बाहर सभाएं या रैलियां करते फिरते हैं। शून्य काल या प्रश्न काल में वे नजर ही नहीं आते। अक्सर चर्चा खत्म होने के बाद वे आते भी हैं तो उनके भाषणों में विपक्ष के सवालों के सिलसिलेवार या तार्किक जवाब नहीं होते और न ही देश की चिंताओं को वे एड्रेस करते नजर आते हैं। तमाम महत्वपूर्ण विधेयक वे चर्चा के बगैर पास कराते हैं। कोई अगर सवाल करे तो वे या तो उस पर बात ही नहीं करते या फिर ऐसे मुखर सदस्यों की आवाज को अपने सांसदों के शोर-गुल में दबवा देते हैं।
इस पर भी उनके लिये उठाये जाने वाले अड़चन भरे सवालों या बयानों को संसदीय कार्यवाही से विलोपित कर दिया जाता है या सदस्यों को ही निलम्बित करा दिया जाता है। इस पर भी मन न भरे तो उनके यहां केन्द्रीय जांच एजेंसियां दस्तक देने लगती हैं। सर्वदलीय बैठक जूनियर मंत्रियों के हवाले कर वे स्वयं बाहर सभाएं करते हैं। सरकार की त्रुटियों पर विपक्ष के विचार आमंत्रित करने का औदार्य दिखलाने वाले ये वही मोदी हैं जो अपनी आलोचना को विरोधियों द्वारा गालियां देना भी बतलाते रहे हैं।
ऐसा वे संसद के बाहर व भीतर दोनों जगहों पर करते हैं। उनके कारोबारी मित्र गौतम अदानी या फिर चीन की भारतीय सीमा में घुसपैठ की बात की जाये तो वे इसे देश पर हमला बतलाने लगते हैं और अगर नोटबन्दी या जीएसटी की असफलताओं पर विपक्ष बात करे तो उसे देशविरोधी करार दिया जाता है।
पिछले 70 वर्षों का बिला नागा रोज हिसाब मांगने वाले मोदी से सम्बन्धित कोई सवाल अगर हो तो वे उन्हें मिलने वाली गालियों की संख्या बतलाने लगते हैं। या वे इस बात का रोना रोते हैं कि उन्हें क्या-क्या कहकर और कितने किलो गालियां दी गईं। अगर प्रधानमंत्री खुली चर्चा के इतने ही हिमायती हैं तो उन्हें अपने सांसदों, पार्टी प्रवक्ताओं, आईटी सेल, ट्रोल आर्मी से कहकर विपक्ष की आवाज दबाने के लिये चलाए जा रहे अभियानों को रुकवाना चाहिये। सब जानते हैं कि ऐसा होना सम्भव नहीं है क्योंकि यह मोदी व उनकी भारतीय जनता पार्टी का विपक्ष के खिलाफ एक बेहद अलोकतांत्रिक अभियान का हिस्सा है।
मजबूत प्रतिपक्ष की वकालत कर उसे खुली चर्चा का न्यौता ऐसा कोई व्यक्ति दे ही नहीं सकता जो देश को उसकी सबसे पुरानी और आजादी के आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाने वाली कांग्रेस से ही मुक्त होने का न केवल सपना दिखाए बल्कि उसका नारा भी दे और ऐसा करने के तमाम अलोकतांत्रिक कदम उठाये। खुद मोदी कांग्रेस एवं सम्पूर्ण विपक्ष को अनेक प्रकार से बदनाम करने के अभियानों का (सफल) नेतृत्व करते आये हैं। वैसे जब प्रधानमंत्री संसद भवन को लोकतंत्र का मंदिर बतलाते हुए विपक्ष को ज्ञान दे रहे थे तो उनकी भाव-भंगिमा में विनम्रता व सहजता नहीं थी। सम्भवत: वे कांग्रेस पर खास तौर पर तंज कसने और उसका मखौल उड़ाने के लिये प्रकट हुए थे। ऐसा उन्होंने पहली बार नहीं किया।
संसद के दस्तावेजों में उनके ऐसे अनेक भाषण संरक्षित होने चाहिये जो विपक्ष एवं राष्ट्र निर्माताओं के लिये अपमानसूचक शब्दों से भरे पड़े हैं। उनका यही रवैया सदन के बाहर दिये जाने वाले भाषणों में भी रहता है। बहुत पीछे जाकर उनके पुराने वक्तव्यों को उद्धृत करने की बजाये हाल के उनके कुछ बयानों को देखें तो उनका व्यवहार उनकी इस ताजा सीख से एकदम अलग है।
पुरानी संसद से नये भवन में जाने के पहले उन्होंने इसी जगह पर कहा था कि श्विपक्ष रोना-धोना छोड़कर नयी शुरुआत करे।श् रोने-धोने से उनका आशय वही था जो इस बार की नकारात्मकता से है। यानी उन्हें असहज करने वाले प्रश्न न पूछे जायें और सरकार की हां में हां मिलाई जाये। मोदी की सकारात्मकता का यही आशय है। फिर, सवाल पूछने वाले उनके लिये मूर्खों के सरदार भी हो जाते हैं।
अधिक पीछे गये बगैर मोदी के पिछले नौ वर्षों के राजनैतिक सफर को देखें तो कह सकते हैं कि सकारात्मकता अपनाने का जो संदेश वे दे रहे हैं उसकी शुरुआत उन्हीं से किये जाने की सख्त जरूरत है। आजाद मुल्क के गौरवशाली संसदीय इतिहास व लोकतांत्रिक विरासत को हमेशा गरियाने और विपक्ष विहीन भारत का नारा बुलन्द करने वाले मोदी ने जो बातें सोमवार को संसद भवन की दहलीज पर कीं, उसके एक छोटे से हिस्से पर भी वे अमल करें तो देश का न केवल लोकतंत्र बचा रहेगा वरन देश भी बच जायेगा।