दोस्ती का रिश्ता खून के रिश्ते से कहीं ज्यादा बड़ा होता है।
आज तक बड़े बुजुर्गों से सुना था कि जब बुरा समय आता है या कहा जाए विपरीत परिस्थितियों होती हैं तब अपने रिश्तेदार ही काम आते हैं। पर आज इस कलयुग में ऐसा नहीं होता है। जीवन में कई बार विपरीत परिस्थितियों आई और अपने खून के रिश्तेदारी ही नहीं खड़े हुए।
ऐसा शायद हर तीसरे व्यक्ति से सुनने को मिलता है।
ऐसे ही कहानी या कहा जाए अपनी आपबीती नंदनी सुना रही है
नंदिनी ने बताया कि बीस साल पहले नंदिनी को आपरेशन के लिए दिल्ली जाना पड़ा। नंदनी के माता-पिता नंदनी को लेकर दिल्ली जा रहे थे तो उन्होंने नंदिनी के बच्चों को नंदिनी के ससुराल में छोड़ दिया। यह सोचकर की मासूम बच्चों को प्यार से रखा जाएगा पर ऐसा हुआ नहीं। शादी करके आई नई नवेली चाची ने बच्चों की दुर्दशा कर दी।
मासूम बच्चे भूखे प्यासे तड़पते रहे, बुखार में पड़े रहे, पर उनके सुध लेने वाला कोई नहीं था। नंदनी का पति मोहन अकेला ही मासूम बच्चे पलता रहा और पत्नी की की देखभाल करता रहा पर नंदनी के पति मोहन के मां-बाप और सगे भाई कभी देखने तक नहीं आए। किसी भी रिश्तेदार ने नंदिनी के पति के कष्टो की सुध भी नहीं ली। कोई देखने तक नहीं आया। पर कष्ट का समय हमेशा तो रहता नहीं है। विपरीत परिस्थितियों आती हैं तो अपनों का पता चलता है और यह नंदिनी और उसके पति मोहन को पता चला। नंदिनी के माता-पिता खाना लेकर आते रहे। मोहन के दोस्त भी एक टांग पर मदद के लिए खड़े रहे । पर सगे मां-बाप, और भाई देखने तक नहीं आए। नंदिनी का समय फिर अच्छा आया। नंदिनी स्वस्थ हो गई। तब मुंह उठा कर सास ससुर भी सेवा करवाने के लिए और रहने के लिए आए । यहां तक कि जिन चाचा चाची ने बच्चों की दुर्दशा कर दी थी वह भी नौकरी मांगने नंदिनी के घर आ गए। कुछ पैसे कमा लिए और जब नंदिनी की गरीबों को दिखा और अपने भाई की परेशानी को दिखा तो वापस पैसे लेकर चले गए। यह दिया दूसरा धोखा। कौन कहता है की कष्ट में और दुख में सिर्फ रिश्तेदार ही काम आते हैं। नंदनी के पति मोहन ने मेहनत करके नंदनी को फिर खड़ा कर दिया और अपने बच्चों को धीरे-धीरे बड़ा करने लगा। मोहन के माता-पिता अब पैसे के लालच में मोहन के पास आने लगे।
पर वह लोग यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे कि मोहन अपनी पत्नी नंदिनी की सेवा क्यों करता है। नंदिनी का साथ देने वाला केवल मात्र के नंदनी के माता-पिता थे। पर शायद नंदिनी के नसीब को कुछ और ही मंजूर था। नंदिनी की बीमारी से दुखी होकर एक दिन नंदिनी के मां भी गुजर गई। नंदिनी और उसके पति पर तो मानो दुखों का पहाड़ टूट गया क्योंकि अब सहारा देने वाला कोई नहीं बचा। नंदनी को अपने माता की 13वीं के लिए ससुराल में रुकना पड़ा। और यहां दूसरी बार सबसे छोटी देवरानी ने नंदनी के साथ बहुत बदतमीजी की। रहना मुश्किल कर दिया। नंदनी के पिता गांव में थे इसलिए नंदिनी का रहना मजबूरी था । नंदनी की बहन से यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ उसने अपने पिता को गांव से वापस बुलाया, घर तैयार किया और नंदनी को अपने पास अपने घर ले गई। यह था दूसरा कष्ट जो नंदिनी पर पहाड़ की तरह फटा था। किसी भी रिश्तेदार ने नंदिनी का साथ नहीं दिया था। धीरे-धीरे नंदिनी अपनी मां के बिना जीना सीख चुकी थी। यहां मोहन के माता-पिता ने मोहन को अपने ही बेटों के अत्याचार की कहानी सुनाइ और अपने सगे दोनों बेटों को सबक सिखाने के लिए बुलवाने लगे , शिकायत करते थे कि उनके दोनों बेटे उन्हें मारते हैं।जब मोहन ने मना कर दिया तो मोहन से ही गुस्सा हो गए और झूठी कहानी बनाने लगे। यहां पांच साल बाद पिता का भी कार एक्सीडेंट में देहांत हो गया। नंदिनी के ससुराल से कोई नहीं आया । नंदिनी फिर संभली । अब नंदिनी और मोहन अपने बच्चों को पालने लगे। किस्मत चमकी और सारे कष्ट खत्म हुआ है मोहन ने बहुत बड़ा घर दिल्ली में खरीद लिया। अपने माता-पिता को भी बुलाया। माता-पिता चोरी से आए। बेटे के नए मकान में पहली दिवाली भी की।। मोहन से तीन लाख रुपये भी लेकर गए। और सब अच्छे से चलता रहा। मोहन को ऐसा लगा कि शायद मेरे माता-पिता बहू की बीमारी में खड़े नहीं हुए पर मेरे लिए जरूर खड़े होंगे शायद यही सबक सिखाने के लिए भगवान ने मोहन को बीमार कर दिया । मोहन दो साल बिस्तर पर पड़ा रहा। मोहन के माता-पिता और भाई इस बार भी बीमार मोहन की शक्ल तक देखने नहीं आए।
कौन कहता है की दुख में रिश्तेदार खड़े होते हैं।
यह आखिर कहां सच है कि खून ही खून के काम आता है।
तमाम मोहन के दोस्तों ने मोहन का दुख में साथ दिया। मोहन फिर से खड़ा हो गया। स्वस्थ हो गया। मोहन और नंदिनी के जीवन में तीन बार विपरीत परिस्थितियों आई कि अपनों को पहचान पाए। पर ऐसा देखा गया की एक भी खून का रिश्तेदार खड़ा नहीं हुआ केवल मात्र दोस्त ही काम आए।
आज वह कहानी सच साबित हो गई की सब रिश्ते बिक सकते हैं दोस्ती का रिश्ता भी कभी बिक नहीं सकता।
एक दुकानदार रिश्तो का भाव लग रहा था।
मां बाप का रिश्ता भाई बहन का रिश्ता चाचा चाची मामा मामी का रिश्ता आदि आदि तभी एक ग्राहक वहां आया उसने कहा दोस्ती का रिश्ता कैसे दिया दुकानदार आंखों में आंसू भरकर भरे हुए गले से बोल यही तो एक रिश्ता है जिस पर दुनिया टिकी है। भाई साहब दोस्ती का रिश्ता ना कभी बिका था ना कभी बिक सकता है और जो भी किया वह दोस्त भी नहीं हो सकता।
लेखिका- ऊषा शुक्ला
चमकनी घंटाघर
शाहजहांपुर यूपी