थकी-थकी सी ये जिंदगी
लगने लगी है अब मुझे
दुरुस्त नहीं ये शहरी हवा
बीमार होने लगे हैं।
धीरे-धीरे।
याद आ रही है वो पगडंडी
वो महक मेरे गांव की।
वो मिट्टी की सुगंध,
बरगद के पेड़ के नीचे
वो चौपाल लगाकर बैठना
वो हंसी ठिठोली ,
वो विहग के घर
पीपल के पेड़ पर
झूमती,कूदती,गाती
वो दिनभर ।
छाले पड़ गए पैरों पर
कमाने शहर क्या आए।
वो पगडंडी पर चलना
याद आ रहा है।
अनवरत बहती वो
निर्मल हवा।
सादगी से भरा था।
वो जीवन मेरा।
गांव मेरा, मुझे बहुत
याद आ रहा है।
थकी-थकी सी जिंदगी
में चंद सांसें ही बची है।
मुरझा रहा हूं,किसी
पुष्प की तरह।
देखना एक बार है,
मुझे गांव मेरा।
शायद खिल जाऊं
किसी सुगंधित पुष्प
की तरह।
गैरों की बस्ती है शहर
तेरा,रह लिया बहुत
इन गैरों के बीच।
वो हंसते - मुस्कुराते
मेरे अपने, मिलेंगे
मुझे मेरे गांव में।
यहां हर रिश्ता
अडिग आवरण
सा है।
भोली भाली एक
नई किरण सा है।... निर्मला की कलम से
लेखिका निर्मला सिन्हा
(ग्राम जामरी डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़)
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