सिनेमा निर्माता साहब बड़े मायूस है। बड़ी मुश्किल से एक फिल्म बनाई। सोचा खूब कमायेंगे। बॉयकॉट चलन के चलते उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था। वे बड़े परेशान थे। माथे पर हाथ धरे निर्देशक की प्रतीक्षा कर रहे हैं। प्रशंसा पाने के लिए बिन बुलाए दौड़ने वाले डाँट-फटकार के समय न जाने कहाँ गायब हो जाते हैं। बहुत बुलाने पर डरते-डरते निर्देशक ने निर्माता का सामना किया। निर्माता ने आव देखा न ताव अपनी भड़ास उतारते हुए कहा, क्यों रे निर्देशक के बच्चे! कहता था युवाओं पर फिल्म बनाओ।
तेरा कहना मानकर युवाओं पर फिल्म बनाई। नाम भी रखा – छोरा-छोरी बड़े मनमौजी। इधर सिनेमा का पोस्टर लगने कि देरी थी उधर कॉलेज के लड़कों ने फाड़-फाड़कर उसका कचूमर बना दिया। अब वे हमें ढूँढ़ रहे हैं। निर्माता-निर्देशक के डाउन-डाउन के नारे लगाए जा रहे हैं। एक बार हम उन्हें मिल जाएँ तो अपने हाथों की खुजली मिटाने में देर नहीं लगायेंगे।
निर्देशक ने कहा, निर्माता साहब आप बेवजह इतना घबरा रहे हैं। ये कॉलेज के छात्र दो तरह के होते हैं। एक वे जो खुद से दंगा करते हैं और दूसरे वो जो दूसरों के भड़काने पर करते हैं। दंगा दोनों में होता है बस पढ़ाई कहीं नहीं होती। इसलिए फिल्म देखने वे जरूर आयेंगे। ये ऊपर से कुछ और भीतर से कुछ होते हैं। निर्माता ने कहा, सिनेमा में कहानी के सिवाय सब कुछ है।
यहाँ तक कि रील से लेकर रियल तक केवल अश्लीलता ही अश्लीलता है। अब ऐसे में फिल्म बैन करने की माँग नहीं करेंगे तो हमारे मंदिर बनायेंगे। सिनेमा का नाम जो है सो है। ऊपर से कैप्शन रखा – छोड़ पढ़ाई करता है जी। ऐसे कैप्शन के चलते बच्चों के माता-पिता हमारी खातिरदारी करने के लिए चौका-बेलन लिए जहाँ-तहाँ खड़े हैं। निर्देशक ने कहा कि फिल्म अभी रिलीज भी नहीं हुई तो यह हाल है, सोचो रिलीज हो जाएगी तो कितना कमायेंगे। मुफ्त का प्रचार। हम यही तो चाहते हैं।
कैसा प्रचार काहे का प्रचार? पुलिस ने तबियत से हमारी पूछताछ की है। चार घंटे में तो वे हमारा सिनेमा दो बार देख लेते। किंतु उन्होंने यह कहते हुए मेरा प्रस्ताव ठुकरा दिया कि सिनेमा वाले रील के लिए ड्रामा करते हैं, जबकि पुलिस वाले रियल के लिए। इसलिए उनके लिए फिल्म में कुछ खास मजा नहीं होता, निर्माता ने कहा। इस पर निर्देशक ने कहा, यह तो बहुत अच्छी बात है।
जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं, वे अश्लीलता भड़ासुओं को देखने के लिए मजबूर कर रहे हैं। आज अच्छाई देखने का जमाना लद चुका है। हर जगह बुराई का बोलबाला है। अब बुराई की कमाई अच्छाई से कहीं ज्यादा है। निर्माता ने कहा, बात तो तुम्हारी सही है। लेकिन सेंसर वालों की कैंची जब चलती है तो सारी बुराई काटकर अपने लिए रख लेते हैं। उनकी कैंची सी बची फिल्म देखकर दर्शक अपनी कैंची न चला दें, इसी का डर सता रहा है। निर्देशक ने कहा, बात तो आपकी सही है। सेंसर की कैंची से पब्लिक की कैंची अधिक धारदार होती है।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, चरवाणीः 7386578657