हम ने वह समय भी देखा है, जब विवाह के दो साल बच्चा न हुआ हो तो घर में तरह-तरह की बातें होने लगती हैं। मात्र घर में ही नहीं, अड़ोस-पड़ोस में भी वैसी ही बातें होने लगती हैं और बच्चा नहीं हो रहा है तो निश्चित रूप से महिला में ही कोई कमी होगी, इस तरह की बातें होती हैं। और अगर बेटी पैदा हो जाती है, तब भी महिला को ही दोषी माना जाता है। जबकि बेटी पैदा हो या बेटा, दोनों में ही महिला का न कोई हाथ होता है और न दोष। दुख की बात तो यह होती है कि ऐसे में ये सारी बातें इस तरह जड़ता से लोगों के मन में बैठा दी जाती हैं कि महिलाएं भी खुद को दोषी मानने लगती हैं कि ऐसा ही होता है।
समय बदल गया है
जबकि अब समय बदल गया है। यह सच है कि अब तुरंत कोई इस तरह की बातें नहीं करता। पर शादी के पांच साल बाद अगर बच्चा न हो तो पहला दोष स्त्री को ही दिया जाता है। गायनो के पास पहले स्त्री को ही चेकअप कराना होता है। और हां, पति का टेस्ट तब होता है, जब गायनो कहता है। जबकि बच्चा न होने पर पहले स्त्री का ही इलाज कराया जाता है। अनेक दवाएं, अनेक पीड़ा, इंजेक्शन और अन्य तमाम कुछ कर लेने के बाद भी जब फर्क नहीं पड़ता, तब पुरुष का स्पर्म काउंट होता है।
पुरुष में भी कमी हो सकती है
गर्भ न ठहर रहा हो, ऐसे सौ मामलों में लगभग पचास मामले पुरुष की कमी के कारण होते हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि गर्भ नहीं ठहर रहा तो स्त्री वंध्या है। इस समस्या में पचास पचास का रेशियो है। खैर, यहां मात्र गर्भ ठहरने की ही बात नहीं है, कोई भी समस्या हो, ज्यादातर दोष महिलाओं के ही सिर मढ़ा जाता है। घर की सलाह मशविरा या ताने की बात हो, स्त्री के हिस्से में ज्यादा सुनने में आता है।
बच्चों के बारे में स्त्रियों को सब से अधिक कहा जाता है
मानलीजिए कि कोई युगल मात्र एक ही बच्चे से खुश है, उसने पहले से ही तय कर लिया है कि वह एक ही बच्चा करेगा तो ऐसे संयोगों में घर में दूसरा बच्चा करने के लिए सब से अधिक मेंटल फोर्स मात्र स्त्रियों पर ही होता है। दूसरों का उदाहरण दे कर समझाया जाता है या फिर दूसरों का उदाहरण दे कर ताना मारा जाता है। इस तरह पहला टारगेट स्त्री ही बनती है। यहां दुख की बात यह है कि यह सब सुनाने और कहने वाली स्त्रियां ही होती हैं।
बच्चे गलत करते हैं तब भी ताना स्त्रियों को ही सुनना पड़ता है
इसी तरह बच्चे शरारती हों, किसी का कहना न मान रहे हों, तो इसका दोष हमेशा मां को ही दिया जाता है। मां ने कुछ सिखाया नहीं है यह कहने वाले लोग जरा भी नहीं सोचते। बच्चा शरारती हुआ तो महिलाओं को यह भी सुनने को मिलता है कि बच्चा मां पर गया है या मामा पर गया है।
इसका असर तन मन पर पड़ता है
घर में होने वाली आक्षेपबाजी कभी कभी इतनी मुश्किल पैदा कर देती है कि इसका असर या तो उनके शरीर पर पड़ता है या फिर वे अपना गुस्सा बच्चे पर उतारती हैं। बदलते समय में जैसे कमाई की जिम्मेदारी मात्र पुरुषों पर नहीं रही, उसी तरह स्त्रियों को भी लगता है कि बच्चे को संभालने से ले कर घर संभालने की जिम्मेदारी भी दोनों की होनी चाहिए।
इच्छा से जीने नही मिलता
तमाम ऐसे भी कपल हैं, जो आज के समय में किसी कारणवश बच्चा न करने का प्लान करते हैं। आज के मार्डन कपल बहुत सोच-विचार कर इस तरह का निर्णय लेते हैं। पर इस समय भी घर में इस तरह के निर्णय के लिए पहले स्त्री को ही कोसा जाता है। उसे समझाने से ले कर कोस कर यह बात कही जाती है। जब लगता है कि स्त्री को चाहे जितना कहा जाए, बात नहीं बनने वाली तब पुरुष तक बात पहुंचती है।
बाकी सब से पहले तो स्त्री को ही यह कह कर समझाया जाता है कि पुरुषों को हर बात की समझ नहीं होती, कुछ मामलों में स्त्रियों को समझना पड़ता है। एक बच्चा करना है या दो बच्चा करना है या बच्चा नहीं करना है, यह निर्णय पति-पत्नी बहुत सोच-विचार कर, लंबे समय तक सोच-विचार कर करते हैं। इस मामले में मात्र स्त्री को ही क्यों दोष दिया जाए।
बात मात्र बच्चों की ही नहीं
बात मात्र बच्चों की ही नहीं है, ऐसी अन्य तमाम बातें हैं, जिसमें दोष मात्र स्त्री के ही सिर मढ़ा जाता है। विवाह के बाद पति के स्वभाव में थोड़ा बदलाव आता है और अगर वह अपनी पत्नी के पक्ष लेते हुए कुछ बोलता है तो इसका दोष भी ज्यादातर स्त्री के ऊपर ही आता है।
विवाह के बाद बेटा बदल गया है
सीधी बात है विवाह के बाद कोई नया व्यक्ति घर में आया हो, उसे कंफर्ट फील कराने या स्नेहवश या शायद उसकी गलती नहीं है, यह सोच कर शायद पति पत्नी का पक्ष ले रहा हो इसका मतलब यह नहीं है कि वह बदल गया है। सीधी बात यह है कि अक्सर मां-बाप के पक्ष में बेटा न हो तो इसका दोष भी मां-बाप बहू के ऊपर ही डाल देते हैं।
सही बात तो यह दोष स्त्री के सिर मढ़ने के बजाय आमने सामने जो समस्या हो, उसे क्लियर कर लेना चाहिए। जबकि कोई ऐसा नहीं है, जो दोष रहित है। फिर भी जिस बात में दोष न देना हो, उस बात में मात्र उसे ही दोष दे कर पक्षपाती नहीं बनना चाहिए। खासकर ताना मारने, सीधी तरह कुछ कहने के बजाय घुमाफिरा कर कहना, ऐसा करने के बजाय थोड़ा उदार और समझदार बनना चाहिए। हर बात का दोष स्त्री के सिर ही नहीं मढ़ना चाहिए।
दोनों पक्ष बराबर रखें
अब बात बच्चों या गलती की नहीं, विवाह के बाद हर घर में कलह होती है, समस्या होती है, बच्चों की कमी हो या कोई अन्य बात हो, ज्यादातर मामलों में स्त्री को ही दोषी माना जाता है। आखिर ऐसा क्यों है? ताली एक हाथ से तो बजती नहीं है। जिस तरह दोनों हाथों से ताली बजती है, उसी तरह गलती भी दोनों पक्षों की होती है। पर दोष हमेशा स्त्री को ही दिया जाता है, आखिर ऐसा क्यों है?
जिम्मेदारी किसी एक की नहीं
बच्चे की समस्या हो तो जितनी जिम्मेदारी स्त्री की है, उतनी ही पुरुष की भी है। इसी तरह घर को संभालने के बारे में भी मात्र स्त्री को ही दोषी माना जाता है। लोगों को यह भी सोचना चाहिए कि इसके लिए भी थोड़ा साथ और सहयोग मिले तो इसमें गलत क्या है?
स्नेहा सिंह
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