कभी ज़ख्म हो देते

कभी ज़ख्म हो देते, कभी मरहम लगाते हो,

मेरे प्यार को इतना तुम क्यों आजमाते हो।

सोचती हूँ तुम्हें हर पल तुम्हारे हर शब्द को जीती-

बनाकर उन्हीं शब्दों के तीर मुझपर क्यों चलाते हो।


यकीं है बहुत तुमपर मगर यकीं नहीं तुमपर,

मेरी नज़रों में रहते तुम तेरी नज़रें नहीं मुझपर,

दिल के हर इक कोने में कई तस्वीर हो रखते-

मेरे तो अक्स में भी तुम ही दिखते हो मेरे दिलवर।


  डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ )