निष्ठुर का प्रेम हूँ, हिय विकल, आविल नयन,
करुण उच्छवास,वर्ती की लौ सम जले मोरा मन।
यादों के सुरभित क्षण सुलग रहे हैं ज्वाला बन,
सूनी पड़ी अंक अचला की, सूना है गगन।
निर्रथक नहीं है यह विरह,आस है होगा मिलन,
झूमेगा मधुमास,समाप्त होगी उर की ये तपन।
यूँ पुलक पुलक कर नाचेगा फिर मेरा मन,
लौट आयेगा ज्यों मरुभूमि में प्रीत का सावन।
डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ)