सदियों से पिपासित चातक तृषित ही रह जाता है,
मकरंद मोहपाश में मधुप,मुकुल में फँस जाता है।
विहँसते दीप लौ की मोहमाया में,पतंगा प्राण गंवाता है,
अथाह नदिया भी बिन जलधि रहती है अधूरी,
कामनायें कब होती है पूरी...
नभ की तपन को बुझाने बरखा रानी आती है,
वह भी तो कुछ पल ही वहाँ रुक पाती है।
अवनि के आँचल में रजत कण की बूँद बनकर,
विलग होती मेघ से,धरा में समा जाती है।
क्षणभंगुर अस्तिव लिए असीम इच्छाओं की धूरी,
कामनायें कब होती है पूरी...
चक्षुओं के कोरों से दृगकण का पुराना नाता है,
ढुलकता अश्रुकण,उर उच्छवास में समाता है।
प्रीतिमय,अप्रतिम, अश्रु तू साथ निभाने वाली,
बाकी सब व्यर्थ, तू ही मेरी कबरी सजाने वाली।
तेरे क्षार जल से मैंने कितनी यादें हैं जोड़ी,
हाँ,तूने ही मेरी कामनायें की है पूरी।
डॉ. रीमा सिन्हा
लखनऊ-उत्तर प्रदेश