चित्र हुआ धुंधला जीवन का,
दुविधाओं का डेरा है।
बुद्धि जटिलताओं में उलझी,
मन को किसने फेरा है।।
क्यों अनचाही राहें आकर
पैरों में बेड़ी डालें,
साथ जुड़ा अंधियारों से है
दीखे नहीं सवेरा है।
मन को किसने फेरा है।।
मैंने कब मोती मांगे थे,
कब सुख की आशा रखी,
किन्तु सतत उर टूट रहा है
कष्ट यही बस मेरा है।
मन को किसने फेरा है।।
मन को कैसे शिला बनाऊॅं,
विधि तू ही अब बतला दे।
नहीं सहन होता है इतनी
पीड़ाओं ने घेरा है।
मन को किसने फेरा है।।
डॉक्टर श्वेता सिंह गौर, हरदोई