विचारों की दुशाला,
पिरोती और बिखेरती हूँ
इच्छाओं की माला।
लिखती और मिटाती हूँ
जीवन में क्या कमाया,
हिसाब में उलझ जाती हूँ
क्या खोया क्या पाया।
मन के तराजू पर
रिश्तों का वजन तोलती हूँ,
व्यक्तित्व के संदूक में
अपने अवगुण टटोलती हूँ।
स्मृतियों के झरोखों से
उस पार जब झांकती हूँ,
अपने सफर की सारी
दुश्वारियां आंकती हूँ।
विश्वास से विश्वास उठवाने
वाले याद आते हैं,
बिना संबंधों के निभाने
वाले याद आते हैं।
बिछोने की सीप में अश्रु
मोती गिर जाते हैं,
तो कभी बहारों के दिन
मुस्कान बिखरातें हैं।
भविष्य के महल में कभी
घूम कर आती हूँ,
उम्मीदों को अपनी
नये पंख मैं लगाती हूँ।
ख्यालों की रेत में खुद को
ही खोजती हूँ,
हाँ सच है मैं कुछ
अधिक ही सोचती हूँ।
दीप्ति खुराना,
मुरादाबाद-उत्तर प्रदेश
9456688279