पुरस्कार प्राप्त होने पर मैंने महाशय से पूछा - मैंने कभी आपको घर से बाहर जाते हुए नहीं देखा। जब देखो तब दो-तीन छोटे-बड़े झरोखे वाली बनियाइन और धारीदार लुंगी में पड़े-पड़े खटिया तोड़ते हुए देखा है। आपको यायावरी का पुरस्कार प्राप्त होना मेरे लिए किसी आठवें अजूबे से कम नहीं है।
दुनिया में सभी सवाल-जवाब नहीं होते। सवालों के नाम पर शक भी होते हैं। शक की गहराई अपमानित करने का बड़ा प्लाट होती है। वे मेरे आशय को समझ गए। उन्होंने कहा - यायावरी को पहले बड़ी चुनौती वाला काम समझता था। लेकिन यायावरी से पहले मैंने जो नौकरियाँ की हैं उसका खासा अनुभव मेरे काम आया। पहले मैं रियल इस्टेट में काम करता था। शहर से दूर जहाँ कोई आता जाता नहीं था उस जमीन को ग्राफिक्स के नाम पर थ्रीडी पिक्चर्स में ढालना, मक्खी निगलने वाले झूठ जैसे यहाँ से आठ लाइन सड़क का जाना, स्विमिंग पुल, अम्युजमेंट पार्क, जिम आदि के झूठे-झूठे चित्र बनाकर ग्राहकों को फांसना हमारे लिए बाएँ हाथ का खेल था। लेकिन इसमें मेरा फायदा कम मालिक का ज्यादा था।
सो मैंने निर्णय किया कि अब से झूठ के बीज, झूठ की खेती और झूठ की फसल के जरिए सची-मुची वाला पैसा कमाऊँगा। मैंने कई यूट्युबरों को देखा है कि वे घर बैठे झूठ की कोठी उठा रहे हैं। एक में पाँच जोड़ना, अफवाहें फैलाना, बंगाली फकीरों-बाबाओं के धंधे खोलकर आम जिंदगी में विष घोलना और उसी के दम पर पैसे की उगाही करना मुझे भा गया। और तो और समाचार चैनलों के एंकरों ने जिस तरह से स्टूडियो में कुर्सियाँ तोड़ी हैं, उससे भी मैं बहुत प्रेरित हूँ। बेशक मैं बगल वाली गली के बारे में कुछ नहीं जानता, लेकिन स्विटजरलैंड की गलियों में घूमता नजर आता हूँ। दुनिया सच की नहीं ग्राफिक्स की दीवानी है। मैं तो कहता हूँ झूठ चाहे जितना बड़ा हो उसे प्रस्तुत करने की कला आ जाए तो लोग उसे सच मान जायेंगे। लोगों को समझाने की नहीं बेवकूफ बनाने की जरूरत है। उनकी बेवकूफी में अपना फायदा हमेशा रहता है।
महाशय की बातें सुनकर मुझे ग्रीन पर्दे के पीछे क्लीन पर्दा दिखने लगा था।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657